Thursday, December 25, 2025
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पुण्यतिथि पर विशेष: आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी : ‘ऐसो को उदार हिन्दी जग माहीं..’- Mahavir Prasad Dwivedi

आधुनिक खड़ी बोली हिंदी के शिल्पकार

Mahavir Prasad Dwivedi: बोलियों में बंटी हिंदी भाषा को परिमार्जित कर भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा प्रारंभ किए गए आधुनिक खड़ी बोली हिंदी आंदोलन को सफलता के शिखर तक पहुँचाने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान निर्णायक माना जाता है। अपनी अथक साधना और अनुशासन के बल पर उन्होंने हिंदी खड़ी बोली में संपादक, लेखक और कवियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की।

भाषा-शुद्धता के लिए अडिग आचार्य

आचार्य द्विवेदी को भाषा और व्याकरण में किसी भी प्रकार की अशुद्धि या अराजकता स्वीकार नहीं थी। हिंदी की प्रतिष्ठा और शुद्धता के लिए वे अपने समय के प्रतिष्ठित साहित्यकारों से भी वाद-विवाद करने से नहीं हिचके। आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में उनके कई विवाद आज भी चर्चित और अमिट हैं।

बालमुकुंद गुप्त से विवाद और सौहार्दपूर्ण अंत

बालमुकुंद गुप्त से ‘अस्थिरता’ और ‘अनस्थिरता’ शब्दों को लेकर वर्षों तक चला विवाद इसका प्रमुख उदाहरण है। समय-समय पर आचार्य द्विवेदी की छवि कलहप्रिय, क्रोधी और तुनकमिज़ाज के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशें हुईं, लेकिन अधिकांश विवादों का अंत सौहार्द और सहृदयता के साथ ही हुआ। बालमुकुंद गुप्त द्वारा आचार्य द्विवेदी के चरणों में सिर रखने और आचार्य द्वारा उन्हें गले लगाने का प्रसंग आज भी उदारता का उदाहरण माना जाता है।

नागरी प्रचारिणी सभा और ‘अनुमोदन का अंत’

नागरी प्रचारिणी सभा की खोजपूर्ण रिपोर्ट की आलोचना को लेकर बाबू श्यामसुंदर दास से मतभेद उत्पन्न हुए। इसके बाद सभा ने ‘सरस्वती’ से संबंध समाप्त कर लिए। आचार्य द्विवेदी द्वारा लिखे गए लेख ‘अनुमोदन का अंत’ पर पं. केदारनाथ पाठक अत्यंत नाराज हुए और सीधे कानपुर पहुँचकर अपनी आपत्ति प्रकट की।
कोमल हृदय आचार्य द्विवेदी ने उन्हें ससम्मान आसन दिया, मिठाई-जल के साथ एक लाठी भी सामने रखी और कहा—
“आपकी लाठी और मेरा सिर…”
यह सुनकर पं. पाठक लज्जित हो गए और जीवन भर के लिए आचार्य जी के भक्त बन गए। अंततः यह विवाद भी श्यामसुंदर दास द्वारा ‘भारत मित्र’ में लिखे गए आचार्य द्विवेदी की उदारता पर केंद्रित लेख के साथ समाप्त हुआ।

सम्मान और दान की मिसाल

सौजन्यता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि 1933 में बाबू श्यामसुंदर दास द्वारा स्थापित नागरी प्रचारिणी सभा ने आचार्य द्विवेदी के सम्मान में ‘अभिनंदन ग्रंथ’ प्रकाशित किया। आचार्य द्विवेदी ने अपने संपादन से जुड़ी बहुमूल्य सामग्री और अपनी निजी लाइब्रेरी की हजारों पुस्तकें सभा को दान में दे दीं।

व्यक्तिगत नहीं, वैचारिक विवाद

भाषा एवं व्याकरण सुधार के आंदोलन से जुड़े अनेक विवादों का पटाक्षेप सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुआ, क्योंकि इन विवादों की जड़ व्यक्तिगत नहीं बल्कि हिंदी भाषा की शुद्धता थी। ‘सरस्वती’ में लेख न छपने पर बीएन शर्मा द्वारा लगाए गए व्यक्तिगत आरोपों को भी आचार्य द्विवेदी ने क्षमायाचना के बाद सहज भाव से समाप्त कर दिया। ऐसा ही एक प्रसंग महामना पं. मदन मोहन मालवीय के अनुज कृष्णकांत मालवीय से जुड़ा हुआ भी साहित्यिक इतिहास में दर्ज है।

‘सरस्वती’ और बाबू चिंतामणि घोष का विश्वास

रेलवे की ₹200 मासिक नौकरी छोड़कर मात्र ₹50 में ‘सरस्वती’ का संपादन स्वीकार करने वाले आचार्य द्विवेदी का इंडियन प्रेस के संस्थापक बाबू चिंतामणि घोष से पहला परिचय उनके ही प्रेस से प्रकाशित हिंदी रीडर की तीखी आलोचना के माध्यम से हुआ था।
फिर भी घोष बाबू ने तमाम आलोचनाओं को अनसुना कर आचार्य द्विवेदी को ‘सरस्वती’ का संपादक नियुक्त किया। 18 वर्षों के संपादन काल में दोनों के बीच कभी मतभेद नहीं हुआ। यह संबंध आज भी संपादक–प्रकाशक के आदर्श संबंधों का उदाहरण है।

वचनभंग पर राजा से भी नहीं डरे

नवंबर 1905 में छतरपुर के राजा ने आचार्य द्विवेदी से प्रतिवर्ष एक अंग्रेजी ग्रंथ के अनुवाद का आग्रह किया और ₹500 पारिश्रमिक देने का वादा किया। 1907 में हर्बर्ट स्पेंसर की पुस्तक ‘Education’ का ‘शिक्षा’ नाम से अनुवाद करने के बाद राजा ने केवल ₹25 देने की बात कही। इस पर आचार्य द्विवेदी ने बिना किसी संकोच के राजा को कड़ा पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया।

बचपन से ही सत्य के पक्षधर

जन्म ग्राम दौलतपुर (रायबरेली) की पाठशाला में एक शिक्षक द्वारा शब्द का गलत अर्थ बताए जाने पर बालक द्विवेदी ने तुरंत प्रतिवाद किया। प्रमाण प्रस्तुत कर उन्होंने शिक्षक को अपनी भूल स्वीकार करने को विवश किया। यह प्रसंग उनके स्वभाव की स्पष्ट झलक देता है।

निष्कर्ष : झुकना नहीं, सुधार करना

दरअसल, स्वाध्यायी आचार्य द्विवेदी का गलत को गलत कहने का स्वभाव बचपन से लेकर अंतिम समय तक बना रहा। किसी के पद, प्रतिष्ठा या शक्ति के आगे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। इसी अडिग स्वभाव के बल पर वे आधुनिक हिंदी खड़ी बोली को गद्य और पद्य—दोनों की सशक्त भाषा बना सके।


प्रस्तुति : गौरव अवस्थी, संयोजक, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान

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