ऋग्वेद का सूत्र है…
अरण्यं जीवनाधारः, सर्वस्य सुखहेतुना। वनं हि रक्षणीयम्, सर्वेषां हितकारणं।।”
इसका अर्थ है जंगल ही जीवों का आधार और सभी के सुख का कारण है, इसलिए सभी के हित के लिए वन की रक्षा करनी चाहिए.
Andaman Forests And Jarawa People: हम सभी जानते हैं कि सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ, चाहे वह सरस्वती घाटी सभ्यता रही हो या यूफ्रीटिस और टिगरिस के किनारे बसी मेसोपोटामिया की सभ्यता रही हो फिर नील नदी के किनारे बसे हुए लोग रहे हों. जहां पानी होता है, स्वाभाविक रूप से जंगल भी उसके आसपास ही रहे होंगे. जब सरस्वती और सिंधु घाटी में सभ्यता का विकास हुआ होगा, तो वहां छोटे-छोटे गांव बसे होंगे।




सभी तस्वीरें – अशोक दिलवाली (Ashok Dilwali)

लोगों ने जंगल से प्राप्त सामग्री से ही अपनी कुटिया बनाई होगी। शुरू में निर्वहन के लिए जो कंदमूल फल-फूल जंगल से मिलते रहे होंगे, उन पर निर्वाह किया होगा, किंतु धीरे-धीरे सभ्यता के विकास के साथ-साथ खेती का भी विकास होता चला गया। पहले जो जंगलों से खाली जमीन बची होगी, उस पर कुछ उगाने का प्रयत्न किया गया होगा, फिर धीरे-धीरे जंगलों में जगह बनाकर खेती की शुरुआत हुई होगी। हमारे पुराणों और प्राचीन साहित्य में इस बात का बहुत वर्णन मिलता है कि सरस्वती नदी के सूखने के बाद जब आर्य गंगा-जमुना के दोआबा में आए, तो उन्होंने कैसे जंगलो के बीच में खेती शुरू की। उनके जंगल के साथ क्या संबंध थे।
इग्नू के प्रोफेसर मयंक कुमार ने अपने एक शोध पत्र में लिखा है कि करीब सन 1000 ईस्वी के आसपास भारत में खेती और जंगलों की स्थिति इस प्रकार थी कि जैसे खेती एक द्वीप हो, जो जंगलों के सागर के बीच में स्थित हो। कमोबेश यही स्थिति आगे के बहुत सालों तक रही। जंगलों के किनारे रहने वाली सभ्यताएं और जंगलों के बीच में रहने वाले लोग भी जंगलों पर बहुत हद तक निर्भर रहते थे। जहां एक तरफ वह खाने की सामग्री जंगलों से प्राप्त करते थे, मकान बनाने के लिए लकड़ी भी वहीं से लेते थे। हालांकि उनकी दृष्टि में उनकी सोच में कभी भी जंगलों को किसी भी तरह की हानि पहुंचाना नहीं था। आगे चलकर सल्तनत और मुगलों के काल में शिकार का बहुत जिक्र आता है, लेकिन जहांगीर के वृत्तांत पढ़े जाएं, तो समझ में आता है कि वह जंगलों में शिकार के लिए तो जाया करते थे, लेकिन कभी भी जंगलों का नुकसान नहीं किया करते थे, सिवाय तब के, जब कभी फौजों के निकलने के लिए रास्ते बनाने पड़े और कुछ जंगल के पेड़ काटने पड़े। मारवाड़ के क्षेत्र में बहुत से ऐसे वर्णन मिलते हैं, जहां नीम, पीपल और बरगद के पेड़ काटने पर गांव वालों से जुर्माना लिया गया हो। कहने का मतलब यह है कि हमारी संस्कृति और सभ्यता में वन और वन के वृक्षों को हमेशा पूज्य दृष्टि से देखा गया। भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और अंग्रेजों के आगमन के बाद ही जंगलों को लेकर सोच बदली। जंगल से सिर्फ उतना ही लेना जितना बेहद जरूरी हो धीरे-धीरे बदलने लगा और एक व्यावसायिक दृष्टि का जन्म हुआ।
अंडमान को लेकर पूर्व डीजीपी प्रदीप श्रीवास्तव इस द्वीप से अपने रिश्ते और लगाव को लेकर कहते हैं “भारत के सबसे बड़े द्वीप समूह अंडमान निकोबार द्वीप में 1991 में मेरी पोस्टिंग सुपरीटेंडेंट पुलिस के रूप में हुई। कम लोग ऐसे मिलेंगे जो अंडमान अपनी मर्जी से तबादला मांग कर गए हों, लेकिन मैं गया था। उस समय तत्कालीन इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस वी एन सिंह थे। वह जानते थे कि मुझे वन जीवन और वहां रहने वाले लोगों में बहुत रुचि थी और इसी प्रकार से समुद्री यात्रा का भी मुझे बहुत चाव था। मेरी इस रुचि को देखते हुए आईजी साहब ने मुझे बुश (वन) पुलिस, नौका पुलिस और सीआईडी का कार्य भार सौंप दिया। मेरे लिए अंडमान निकोबार द्वीप समूह, वहां के जंगलों और जनजातियों को समझने का यह सुनहरा मौका था।”

उन्होंने कहा, “अंग्रेजों ने जब 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंडमान निकोबार द्वीप समूह का उपनिवेशीकरण शुरू किया, तो उस समय द्वीप समूह का तकरीबन 92% भू-भाग जंगलों से आच्छादित था। धीरे-धीरे 1857 के गदर के बाद वहां सेल्युलर जेल बना और स्वतंत्रता सेनानियों और अन्य सजायाफ़्ता कैदियों को वहां भेजा जाने लगा। अभी यहां यह बताना आवश्यक है कि मुख्यतः रेनफॉरेस्ट होने के कारण यहां ऐसे पेड़ पाए जाते थे, जिनका बहुत इस्तेमाल इमारत बनाने, फर्नीचर बनाने में और घरों को सजाने में होता था। इनमें मुख्य पेड़ थे पेडॉक, गुर्जन, महोगनी और सफेद चुगलम (चुई)। पैडोक महोगनी और गर्जन के पेड़ 100 /125 फीट तक लंबे हो जाते थे और चुई की लकड़ी सिल्क के कपड़े जैसी लगती थी। सन 1883 में अंडमान के चैथम द्वीप में एशिया की सबसे बड़ी आरा मिल chatham saw mill लगाई गई और पेड़ काटने और लकड़ी बेचने का काम व्यावसायिक रूप से होने लगा। बकिंघम पैलेस, लंदन के राजमहल के अंदर की पूरी पैनलिंग पैडोक की लाल लकड़ी से की गई थी। इसके लिए पानी के जहाज से लकड़ी इंग्लैंड ले जाई गई थी। 1947 के बाद पूर्वी बंगाल के बहुत अधिक शरणार्थियों को भी जंगल काटकर मायाबंदर में बसाया गया। इस प्रकार धीरे-धीरे बसावट बढ़ने लगी, तो कुछ जंगल कम होने स्वाभाविक ही थे। 1991 में मेरे पहुंचने के कुछ ही वर्ष पूर्व अंडमान ट्रंक रोड का निर्माण हुआ था, जो पोर्ट ब्लेयर को द्वीप के मध्य और उत्तरी क्षेत्रों से जोड़ती थीं। इस मुख्य मार्ग के कारण भी अंडमान के काफी जंगल कटे और जंगलों का बहुत नुकसान हुआ।”
गौर करें तो जंगलों के कटते जाने से एक बड़ा नुकसान वहां अंदर रहने वाली जनजातियों का हुआ। ग्रेट अंडमानी ओंगी और शोम्पेन तो पहले ही जंगलों से बाहर आ गए थे. वहां बचे थे केवल जारवा और सेंट्नली। यह जारवा ही थे, जो उत्तरी अंडमान के जंगलों में रहते थे और जंगलों को बचाए हुए थे। बहुत दिनों से एक सरकारी और गैर सरकारी विचारधारा और प्रयास चल रहा था कि जारवा जैसी प्राचीनतम जनजातियों को जंगलों से निकाल कर सभ्यता के परिवेश यानी मुख्य धारा में लाया जाए।
इस मुद्दे पर श्रीवास्तव कहते हैं कि “यहां कुछ लोग ईमानदारी से चाहते होंगे कि इस प्रकार जंगलों में बिना कपड़े पहने, बिना किसी आधुनिक सुविधा के रहते हुए जारवा जनजाति के लोगों को बाहर निकाल कर सभ्य समाज में लाना चाहिए, लेकिन पोर्ट ब्लेयर में रहकर यह मेरी समझ में आ गया था कि इस भावना के पीछे एक बहुत बड़ा अशुद्ध निहित स्वार्थ भी था। जारवा आक्रामक थे और अगर जंगल ठेकेदार के लोग अनधिकृत लकड़ी काटने जंगल के अंदर घुसते थे, तो जारवा उन पर आक्रमण कर देते थे। 21 अक्टूबर 1991 को ऐसी ही एक घटना हुई। सूचना मिली कि बुश पुलिस के एक सिपाही को ज़िरकाटांग पुलिस चौकी में जारवा ने तीरों से भेदकर मार दिया है। आईजी साहेब के साथ मैं भी मौके पर पहुंचा। मेरे लिए यह पहला मौका था, जहां मैंने जारवा द्वारा मारे गए व्यक्ति को देखा था। लोहे का तीर सिपाही के हाथ और पसलियों को भेदता हुआ छाती में घुस गया था जिससे उसकी तुरंत मृत्यु हो गई थी। तीर और उसकी मार देखकर ही अंदाज लगाया जा सकता था कि कितनी ताकत से यह तीर चलाया गया होगा। पुलिस चौकी जाकर यह भी पता लगा कि उस रात पुलिसवालों ने डर कर जारवा को भगाने के लिए राइफल से 30…40 गोलियां चला दीं थी।”
अंडमान की घटना को देखकर प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि “इस घटना ने मुझे सोचने को मजबूर कर दिया। पहला यह कि जारवा का निशाना कितना सधा हुआ है और इनका चलाया एक तीर ही आदमी को मार सकता है। ऐसे में किसी का भी जंगल में घुसना संभव नहीं था। दूसरा क्या राइफल की इतनी गोलियां केवल डराने के लिए चला दी गईं। कैसे पता कि गोलियां केवल हवा ही में चलाई गई थी और सीधे जारवा को निशाना बनाकर नहीं। अगर किसी जारवा को गोली लगी भी हो तो क्या वह थाने में शिकायत करने आयेगा या जानवर की तरह जंगल के किसी कोने में घायल मर जाएगा। मुझे यह भी बताया गया कि बुश पुलिस के सिपाही जारवा को डराने के लिए महीने में काफी गोलियां चला देते है। मुझे लगा कि यदि केवल डराने के लिए ही गोलियां चलाई जाती हैं, तो वहीं काम ब्लैंक कारतूस भी करेंगे या पटाखे भी अधिक आवाज करेंगे। तो जिंदा गोलियों ( Live Shots/ Live Bullets) की जगह ब्लैंक्स ही क्यों न दिए जाएं, जारवा पर गोली चलने का खतरा तो नहीं रहेगा। वीएन सिंह साहेब एक बहुत मेहरबान आईजीपी थे। उन्होंने कहा कि अगर तुम जारवा संरक्षण के बारे में इतनी शिद्दत से (Strongly) सोचते हो तो लाइव शॉट्स वापस ले लो और ब्लैंक सप्लाई कर दो।”

प्रदीप जी बताते हैं कि, “आईजी साहब का हुक्म मिलते ही अंडमान निकोबार की पूरी बुश पुलिस से जिंदा कारतूस वापस लेकर ब्लैंक कारतूस दे दिए गए और फिर जैसे आसमान फट पड़ा हो। जिरकाटांग बाराटांग और करीब-करीब पूरी अंडमान ट्रंक रोड और जारवा रिजर्व फॉरेस्ट के पास के तमाम गांवों में जैसे भूचाल आ गया हो। गांवों के मुखिया आगे-आगे पुलिस वाले पीछे-पीछे आईजी साहब के यहां हाज़िर हो गए। साहेब, एसपी साहब ने बंदूक की गोली की जगह खाली शोर मचाने वाले कारतूस पुलिस को दे दिए हैं, अब हमें तो जारवा मार ही डालेगा। मुझे बुलाया गया। मैने गांव वालों से पूछा कि या तो पुलिस सीधी गोली चलाती है तो बात दूसरी है और अगर हवा में ही चलाती है तो फरक क्या है। जारवा कैसे जानेगा की गोली असली नहीं है। कोई जवाब था नहीं। असलियत यह थी कि गांव के मुख्य लोग पुलिस वालों के साथ जंगल के अंदर जाते थे और वहां हिरन का शिकार करते थे। जारवा पुलिस के डर से दूर रहते थे। जब गोली नहीं रही तो पुलिसवाला भी जंगल के अंदर नहीं जाएगा तो शिकार बंद। इसी तरह से जंगल ठेकेदार को भी पुलिस से संरक्षण मिलता था और वह अनधिकृत रूप से लकड़ी काटता था। जंगल ठेकेदार के लोग तो प्रोटेस्ट करने नहीं आए, किंतु फॉरेस्ट के उच्च अधिकारियों से बहुत दबाव आया, लेकिन आईजी साहब विचलित नहीं हुए। गांव वालों का एक प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल दयाल से भी मिला, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। तो इस प्रकार से दो साल के लिए किसी भी जारवा को पुलिस की गोली नहीं लगी होगी, जंगल ठेकेदार के लोग पेड़ काटने अंदर नहीं घुस पाए होंगे और हिरन का भी शिकार नहीं हुआ होगा। मेरे और आईजी साहब के अंडमान से हटने के बाद बुश पुलिस को गोलियां वापस मिल गईं।”
चंडीगढ़ के पूर्व डीजीपी रहे प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि “जारवा का संकट ख़त्म नहीं हुआ। जारवा को समाज की मुख्य धारा में लाने की सरकारी प्रक्रिया चलती रही। मेरे अंडमान जानें के बहुत पहले से जारवा संपर्क चल रहा था। हर पूर्णिमा को एक नारियल से भरी नाव जारवा जंगल के समुद्र तट पर जाती थी। पहले जारवा दूर रहते थे और नारियल किनारे छोड़ दिए जाते थे। धीरे-धीरे जारवा का विश्वास बढ़ता गया और वो नाव पर चढ़ आने लगे । एक सरदार डीएसपी साहेब हर बार जाते थे और उनको जारवा खूब पहचानने लगे थे। उस समय करीब 200 जारवा जंगल में थे। अब 30 वर्षों में सभ्य हो गए। बस अड्डे, बाजारों में घूमते-फिरते दिखते हैं। बहुतों ने शादी कर ली और 650 हो गए हैं।
अब अंडमान निकोबार द्वीप समूह में केवल सेंटीनेली बचे हैं, जो सेंटिनल द्वीप में अलग रह रहे हैं और पास जाने पर तीर चलाकर घायल कर देते हैं।”
यह डिबेट अब भी चल रही है कि अंडमान की प्राचीनतम जातियों को जंगल से बाहर लाना चाहिए था या नहीं, लेकिन यह बात पक्की है कि जारवा के जंगल से बाहर आने के बाद जंगल में लकड़ी काटना चुराना और शिकार करना आसान हो गया है।
