Noida Forestation: मत्स्य पुराण का श्लोक है।
दश कूप समा वापी, दशवापी समो हृदः।
दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः॥
इसका मतलब ये है कि 10 कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है।
10 बावड़ियों के बराबर एक सरोवर होता है।
10 सरोवरों के बराबर एक पुत्र होता है।
और 10 पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है।
हजारों वर्षों से यह हमारी सनातन सोच थी।

यह श्लोक ये बताता है कि जल-स्रोतों का निर्माण और संरक्षण एक महान पुण्य है। पुत्र से भी बढ़कर वृक्ष का महत्त्व होता है। इसकी वजह ये हैं कि वृक्ष जीवन देता है, पर्यावरण का संतुलन रखता है, और अनगिनत जीवों का पालन करता है। हजारों वर्षों से भारतीय ऋषियों ने प्रकृति, जल और पर्यावरण को समाज के केंद्र में रखा था। ये बात आज कितनी प्रासंगिक हो गई है।
नोएडा इंटरनेशनल एयरपोर्ट के लिए बहुत सारे पेड़ काटे गए थे। इनकी भरपाई करने के लिए नोएडा प्रशासन ने पहल शुरू की थी। इसके लिए हल्दीराम ग्रुप ने इलाके को हरा-भरा करने का बीड़ा उठाया था। इस कार्य को परवान चढ़ाने के लिए एक नाम है प्रदीप कुमार श्रीवास्तव। इनका नाम लिए बगैर अगर वनीकरण की बात करूं तो वो अधूरी रहेगी। प्रदीप श्रीवास्तव आईपीएस अधिकारी रहे। चंडीगढ़ डीजीपी रहे। आजकल पर्यावरण के क्षेत्र में बड़ा काम कर रहे हैं। उन्हीं से हमारी बात हुई नोएडा के वनीकरण की। पेश है कुछ अंश।
हजारों वर्षों की हमारी इसी सनातनी सोच को अमली जामा पहनने का एक अभूतपूर्व अवसर मुझे मिला। इस कहानी की शुरुआत पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक से होती है। कहानी के मुख्य चरित्र कहीं न कहीं पुरानी दिल्ली से जुड़े थे।
सवाल: वनरोपण के लिए हल्दीराम और नोएडा प्रशासन की पहल की बुनियाद कैसे बने प्रदीप श्रीवास्तव?
जवाब: हल्दीराम ग्रुप की शुरुआत राजस्थान के बीकानेर से हुई, जहां उनका सौ साल पुराना पुश्तैनी भुजिया और मिठाई बनाने का व्यवसाय था। सन 1980 के दशक में उसी परिवार के मुखिया मनोहर लाल अग्रवाल ने दिल्ली में हल्दीराम के नाम से चांदनी चौक में अपनी पहली दुकान खोली। वही समय था, जब मैं नया-नया दिल्ली पुलिस में आया था और एसीपी चांदनी चौक लगा था।

मनोहर जी, बड़े मधुर स्वभाव के व्यक्ति हैं और जल्दी ही जान पहचान एक लंबी दोस्ती में बदल गई। हल्दीराम का नाम और व्यवसाय दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता गया और मैं भी धीरे-धीरे नौकरी के पायदान चढ़ता गया। मनोहर जी न केवल एक दक्ष व्यापारी हैं, बल्कि एक बड़ी सोच के व्यक्ति भी हैं। उनके बीकानेर में खोले हुए अस्पताल समाज के लिए वरदान हैं। एक दिन जब हम लोग चाणक्यपुरी के मेरे सरकारी मकान में बैठे थे, मनोहर जी ने बताया कि उनको नोएडा दिल्ली बॉर्डर पर एक स्कूल बनाने के लिए 10 एकड़ जमीन मिल रही है। मैने कहा कि रिटायरमेंट के बाद मुझे भी बच्चों के बीच समय बिताना अच्छा लगेगा। बात आई-गई हो गई। जब मैं रिटायरमेंट के बाद वापस दिल्ली आया, तब तक हल्दीराम ग्रुप का एक बड़ा स्कूल ज्ञानश्री के नाम से खुल चुका था। मैं इस स्कूल में अवैतनिक एडवाइजर के रूप से जुड़ गया

दूसरा इत्तेफाक यह हुआ कि करीब उसी समय में मेरे एक जूनियर सहयोगी बीएन सिंह नोएडा के डीएम बन गए। उन्होंने एक दिन बातचीत के दौरान यह बताया कि नोएडा हवाई अड्डा बनाने में जो पेड़ कटे है, उनकी क्षतिपूर्ति के लिए सरकार एक बड़ा वनीकरण अभियान चलाना चाहती है। डीएम ने पूछा कि यदि सरकार आपको जमीन लीज पर दे दे, तो क्या आप किसी कॉरपोरेट सीएसआर फंड से वनीकरण कर सकते हैं। मैंने मनोहर जी से बात की और डीएम को हां कर दी। नोएडा प्रशासन के पास एक जमीन थी, जो उन्होंने जेपी ग्रुप को तीस साल की लीज पर दी थी, किंतु जेपी ग्रुप उसमें अधिक कुछ कर नहीं सका था। वही जमीन नोएडा प्रशासन ने हल्दीराम को देने का प्रस्ताव किया। नोएडा प्रशासन, जेपी और हल्दीराम ग्रुप के बीच एक एग्रीमेंट हुआ, जिसके अंतर्गत सन 2019 में करीब सौ (100) एकड़ जमीन दस वर्षों के लिए हल्दीराम ग्रुप को मिल गई। इस प्रकार एक बड़े वनीकरण प्रयास की शुरुआत हुई। औपचारिक रूप से ज्ञानश्री स्कूल की संस्थापक डॉयरेक्टर रीटा कपूर संरक्षक नियुक्त हुईं। मनोहर जी के अनुरोध पर मैं इस सीएसआर प्रोजेक्ट को अनौपचारिक रूप से देखने लगा।

सवाल: वनरोपण का ये इलाका कहां है?
जवाब: यह 100 एकड़ सरकारी जमीन ग्रेटर नोएडा से 36 किमी दूर नोएडा आगरा एक्सप्रेसवे के दोनों ओर स्थित है। जमीन अधिकतर खाली थी, सिवाय कुछ बबूल के पेड़ों और जंगली झाड़ियों के। पहला काम था कि बुलडोजर चलाकर जंगली झाड़ियों हटाना और जमीन को समतल करना। मेरा अनुभव था कि पेड़ों के संरक्षण के लिए यह नितांत आवश्यक है कि इस जमीन की तारबंदी की जाए, ताकि जानवर पेड़ों को नुकसान न पहुंचाएं। उस इलाके में पेड़ों को खतरा मुख्यतः नीलगाय से होता है। जेपी ग्रुप के पुराने कॉन्ट्रैक्टर झब्बू खान को यह जिम्मेदारी दी गई. खान ने वहां चार फुट ऊंची तारबंदी कर दी। एक बार जमीन संरक्षित हो गई, तो आगली जरूरत थी पानी की। तीनों प्लॉटों में एक-एक ट्यूबवेल लगवाए गए। वहां पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था और 100 एकड़ के लिए काफी था। पानी, नालियों द्वारा पेड़ों में पहुंचाने में व्यर्थ भी जाता है, इसलिए ड्रिप इरीगेशन का उपयोग किया गया। गौर करें तो पानी ड्रिप से पेड़ को मिलने से बर्बाद नहीं होता है और पेड़ों के आसपास सूखा रहने से जंगली घास भी कम पैदा होती है।

सवाल: वृक्षारोपण के लिए पौधे-पेड़ लगाने के लिए क्या किया गया?
जवाब: पेड़ों के चयन के लिए सामान्य और सोची-समझी प्रक्रिया अपनाई गई। इस संबंध में मेरी बुनियादी समझ यह रही है कि अंग्रेजों ने नई दिल्ली बनाते समय देसी पेड़ नीम, गूलर, जामुन, पीलखन, सेमल, इत्यादि लगाए जो पिछले सौ सालों से चल रहे हैं और उनके कारण नई दिल्ली विश्व के ग्रीनेस्ट कैपिटल्स में गिनी जाती है। दूसरी तरफ अब PWD (पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट) पेड़ लगाती है, जैसे गुल मोहर, अमलतास, जैकेरेन्डा, टेबेबिया इत्यादि, जो जल्दी तो बढ़ते हैं, लेकिन उतने ही जल्दी खत्म भी हो जाते हैं। तो मैंने तय किया कि इस वन में केवल लंबी आयु के देसी पेड़ लगाए जाएं, और कुछ वो भी, जो अब विलुप्त होने की कगार पर हैं। रीटा कपूर की तरफ से पीयूष सिंह को ये सारी जिम्मेदारी दी गई। जमीन को एक-सा यानी समतल किया जा चुका था। अब उसमें गड्ढे खोदने और खाद इत्यादि डालने का काम करना था। सौ एकड़ जमीन में ढाई-तीन फुट गहरे गड्ढे मानवीय श्रम से खुदवाने कठिन थे, इसलिए झब्बू खान की मदद से मशीनरी का सहारा लिया गया। अब ट्रैक्टर में गड्ढे खोदने की ड्रिल मशीन उपलब्ध थी, उससे कम समय में यह काम किया गया।

सवाल: वनीकरण के किस विधि को अपनाया गया?
जवाब: अब प्रश्न उठा कि वनीकरण किस विधि से किया जाए। इधर हॉल में जापान में विकसित मियावाकी तकनीक भारत में बहुत चर्चित रही है। इस जापानी तकनीक में दो-दो तीन-तीन फुट की दूरी पर पौधे लगाते हैं, जिससे सघन वनीकरण कम समय में लगने लगता है। बड़े-बड़े शहरों में जहां प्लॉट के आकार छोटे होते हैं, यह विधि जल्दी परिणाम देती है। लेकिन मेरे सोचने में फर्क था। हमारा प्लॉट साइज़ खासा बड़ा था और पौधे भी हमें विशुद्ध देसी लगाने थे। हमारे पौधे अपनी पूरी क्षमता तक बढ़ें, इसलिए उन्हें उचित जगह, उचित दूरी और पूरा पोषण देना आवश्यक था।

यह सब सोचकर मैंने तय किया कि हम लोग वृक्षारोपण परंपरागत तरीके से आठ-आठ फुट के फैसले पर ही करेंगे। मेरे एक पुराने मित्र चीफ कंजर्वेटर फॉरेस्ट थे, उनकी राय पर राजस्थान के अलवर की एक नर्सरी चुनी गई, जहां पेड़ थोक के भाव और दिल्ली से काफी सस्ते मिलते थे। हम लोगों ने पहले प्लॉट में एक और प्रयोग किया। तारबंदी के साथ-साथ बांस के पेड़ बहुत सघन रूप से लगाए, ताकि आगे चलकर बांस की एक अभेद्य दीवाल बन जाए और तार टूटने के बाद भी जानवर न घुस सकें। हमने देसी पेड़ों में दो तरह के पेड़ चुने। एक पेड़, तो वह जो अपने गांव देहात में आमतौर पर उगते हैं, जैसे नीम, पीपल, बरगद, गूलर, पिलखन, इमली, सेमल, पलाश, बेल, कटहल, सहजन इत्यादि और दूसरे वह जो अब कम देखने में आते हैं, जैसे बहेड़ा, महुआ, हरड़, अर्जुन, कैथा वगैरह। कुछ फलों के भी पेड़ लगाए, ताकि पक्षी आ सकें और उनको भोजन मिल सके जैसे जामुन, आम, शहतूत, अंजीर और आंवला।

इस तरह से तकरीबन बीस-इक्कीस वेराइटी तरह के पेड़ लगाए गए। एक साल में मौसम को ध्यान में रखते हुए तकरीबन 65,000 पौधे, 100 एकड़ जमीन में लगा दिए गए। यहां बहुत क्रेडिट जाता है हल्दीराम की लोकल टीम को. इस टीम में पीयूष सिंह, झब्बू खान, अज्जू, सुशील वगैरह थे. इन मिले संरक्षण के कारण वहां लगाए गए पौधों में से मात्र एक या दो प्रतिशत पेड़ नहीं चले। हालांकि सरकारी स्तर पर यह आंकड़ा बहुत ऊपर होता है। वहां काफी मात्रा में पौधे दम तोड़ देते हैं। वहीं हम लोगों द्वारा लगाए गए पौधे अब पांच वर्षों में बारह से पंद्रह फुट के पेड़ बन गए हैं। इतना ही नहीं ये पेड़ काफी मजबूत और छायादार हैं। अब तो बांस की एक घनी दीवार भी बन गई, जिसे पार करना कठिन है। सघन वनीकरण के सरकार और हल्दीराम के प्रयास को अभूतपूर्व सफलता मिली।

सवाल: इतने बड़े पैमाने पर लगे पेड़ों के लिए पानी की क्या व्यवस्था है? वनीकरण और जल संरक्षण को लेकर और क्या काम हुए?

जवाब: लंबी सांस लेते हुए प्रदीप जी कहते हैं कि यह कहानी अधूरी रह जाएगी, यदि मैं इस परियोजना में जल भंडारण और तालाब (water bodies) का जिक्र न करूं। शुरुआती दिनों में जब ज़मीन समतल हो रही थी, गड्ढे खुद रहे थे, हम लोग एक कीकर के पेड़ के नीचे बैठते थे। मौसम बारिश का था, तभी मैने देखा कि तीन-चार भैंसे पानी और कीचड़ से लथपथ सामने से निकलीं। मैंने काम करनेवाले लड़कों से पूछा कि यह कहां से आ रहीं हैं तो बताया गया कि उधर एक ढलान वाली ज़मीन (Low Lying Area) है, जहां कुछ पानी भर जाता है और गर्मी के कारण भैंसे वहीं पड़ी रहती हैं। पास से देखने पर विचार आया कि क्यों न यहां एक तालाब बनाया जाय।

जेसीबी लगाकर तीन-चार दिनों में वहां एक तालाब बन ही गया। वहीं से निकली मिट्टी से उसके तटबंध बनाए गए और तालाब के चारों ओर घूमने के लिए एक रास्ता। स्वाभाविक ढाल होने के कारण वर्षा का तमाम पानी तालाब में ही आता है और गर्मी में कमी पड़ने पर नलकूप से भर दिया जाता है। धीरे-धीरे वहां चिड़ियां भी आने लगी और पूरे स्थान का दृश्य बदल गया। इस प्रयोग की सफलता को देखते हुए कुछ समय में एक और वॉटर बॉडी का निर्माण किया गया और इस प्रकार से वनीकरण और जल संरक्षण का यह अदभुत प्रयोग पूरा हुआ। इससे आसपास के एरिया में भूमि का जल स्तर भी ऊपर उठ गया। वन इतना मनोहारी बन गया कि उसका नाम मनोहर वन रक्खा गया। पेड़ बड़े हो गए तो नील गायों के लिए भी रास्ता बना दिया गया, जल उपलब्ध था ही तो अब पक्षी भी बड़ी संख्या में आने लगे। इस वन में अब जंगली जानवर पक्षी और विभिन्न प्रकार के विशुद्ध भारतीय वृक्ष देखने को मिलते हैं।

बगैर रुके वो कहते हैं कि इस हरियाली इलाके में हल्दीराम ग्रुप के स्कूल ज्ञानश्री स्कूल और अन्य स्कूली बच्चों को पर्यावरण और वानिकी से परिचित कराने के लिए यहां एक दिवसीय कैंप लगाए जाते हैं। जहां शिक्षक उनका परिचय विभिन्न पेड़ पौधों और वनस्पतियों से करवाते हैं।
सवाल: आखिरी सवाल। पूरे प्रोजक्ट को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे?

जवाब: यहां यह बताना नितांत आवश्यक है कि नोएडा प्रशासन की दूरदृष्टि और हल्दीराम ग्रुप के प्रमुख मनोहर अग्रवाल की भामाशाह प्रकृति के कारण यह अनुकरणीय प्रोजेक्ट यहां तक पहुंचा और जेवर हवाई अड्डे के पास एक मनुष्यकृत वन का निर्माण हो सका। इस पूरे प्रयास में मनोहर जी ने पैसे की कोई कमी कभी महसूस नहीं होने दी। तीन-चार करोड़ रुपए इस कार्य में अभी तक लग चुके हैं और इस जंगल को हराभरा रखने में करीब दो लाख रुपए महीने का खर्चा आता है। नोएडा प्रशासन को हम लोगों ने आवेदन किया है कि यदि हमारा यहां कार्यकाल और जमीन की लीज पांच वर्ष और बढ़ा दी जाए, तो यह पौधे पूर्णतया संपुष्ट हो जाएंगे और यह वन एक स्थाई रूप ले लेगा। ज्ञानश्री स्कूल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी कर्नल नवीन छाबड़ा, प्रशासन को समझाने में लगे हैं कि हमारी लीज़ 5 साल और बढ़ाने से नोएडा प्रशासन पर्यावरण और जन सामान्य को क्या फायदा मिल सकता है। आगे समय बताएगा।
इस तरह से देखें तो पर्यावरण की भरपाई के लिए यूपी के नोएडा प्रशासन ने जो पहल शुरू की थी, उसके लिए हाथ से हाथ मिले और क्रंकीट में बदलते जा रहे नोएडा में हरे-भरे पेड़ों से सुसज्जित ये जंगल न सिर्फ मानवता की सेवा कर रहे हैं, बल्कि पशु-पक्षियों और जानवरों को नया जीवन दे रहे हैं. इन सब को धरातल पर उतारने के पीछे हजारों वर्ष पुरानी सनातनी सोच को वास्तविकता में बदलने की एक बेजोड़ सोच थी। यह एक सामूहिक प्रयास था। एक प्रशासनिक दूरदृष्टि थी। बड़े व्यावसायिक घराने की उदार धार्मिक सोच थी। इसके साथ ही प्रतिबद्ध व्यक्तियों की पर्यावरणीय जागरूकता का यह एक नायाब तोहफा है, जो आज के भौतिकवादी माहौल में बमुश्किल मिलता है। इसके अलावा यह एक एकीकृत ऊर्जा का उत्कृष्ट नमूना है, जो दूसरों को प्रेरणा देता है। साथ ही और दूसरे पर्यावरण प्रेमियों के दिल में जलन पैदा करता है कि काश! हम सब भी ऐसा कर पाते। उम्मीद हैं कि प्रदीप कुमार श्रीवास्तव जैसे लोग यहीं नहीं रुकेंगे। एनवॉयरमेंट को बेहतर बनाने के लिए ऐसे काम में अपना महती योगदान देते रहेंगे। हम सबकी ओर से उन्हें साधुवाद!
